अम्बानी ने Pre - Wedding क्या इज़्ज़त बचाने के लिए करी ?
अकबर ने एक रात्रि तानसेन को विदा करते वक्त कहाः तुम्हारे गीत सुनता हूं, तुम्हारा वाद्य सुनता हूं, तो मेरे प्राण इस भांति सम्मोहित हो जाते हैं, और मुझे ऐसा महशुश होने लगता है कि तुमहारे से बेहतर भी तो कभी किसी ने भी नहीं बजाया होगा औरे तुमसे बेहतर कोई कभी बजा भी नहीं सकेगा। संगीत में तुमने जो जाना है और जो पाया है वो शायद कभी किसी ने नहीं जाना और कभी कोई नहीं जान सकेगा, ऐसा मेरे मन में भाव निरंतर उठता है। लेकिन आज मेरे मन में एक नया प्रश्न आ गया है वो मैं तुमसे पूछता हूं और वह यह कि जब मैं तुम्हें सुनता था तो मुझे अचानक मेरे मन में यह प्रश्न आया, तुमने शायद किसी से सीखा हो, कोई गुरु हो, और हो सकता है वह तुमसे भी बेहतर बजाता हो और तुमसे भी बेहतर, तुमसे भी गहरा जाता हो, हो सकता है। तो तुम्हारा गुरु कोई है कोई जीवित? यदि हो तो मैं उसे सुनना चाहूंगा। मुझे विश्वास नहीं पड़ता कि तुमसे आगे कोई हो सकता है। लेकिन फिर भी मैं सुनना चाहूंगा। मेरा कुतूहल जग गया।
तानसेन ने कहा कि बड़ी कठिन बात है। गुरु तो मेरे हैं, लेकिन उनको कहा नहीं जा सकता कि वे गाएं, हां, कभी-कभी वे गाते हैं तब सुना जा सकता है। कभी-कभी वे बजाते हैं तब सुना जा सकता उन्हें । कभी-कभी वे बजाते हैं तब सुना जा सकता उन्हें , लेकिन कहा नहीं जा सकता कि वे बजाएं, क्योंकि उनकी कोई आकांक्षा नहीं है जिसके लिए उनको लोभ दिया जा सके कि इसलिए बजाओ। उनकी कोई यश की कामना नहीं है, कोई इच्छा नहीं है, कोई पाने का भाव नहीं है, हां, कभी-कभी अपनी मौज में वे बजाते हैं तब सुना जा सकता है। अकबर ने कहा कि मैं सुनूंगा। तानसेन कहाः चोरी से सुनना पड़ेगा, क्योंकि सामने चले जाएं तो हो सकता है वे बंद कर दें और चीज टूट जाए।
तो आधी रात को अकबर और तानसेन गए। तानसेन का गुरु एक फकीर था, हरिदास, वह यमुना के किनारे रहता। एक झोपड़े में। कोई तीन बजे सुबह उठ कर वह अपनी मौज में कुछ गाता और बजाता। दोनों ने झोपड़े के बाहर चोरी से बैठ कर सुना। शायद ही कभी किसी सम्राट ने चोरी से बैठ कर सुना हो।
अकबर रोने लगा और लौटते में तानसेन से बोला नहीं। महल पहुंच कर उसने तानसेन से बोला कि मैं तो सोचता था तुम्हारा कोई तोड़ नहीं, अब मैं क्या सोचूं, तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कुछ भी नहीं हो। लेकिन इतना फर्क क्यों है? तुम इतना, इतना अलौकिक क्यों नहीं बजा पाते हो?
तानसेन ने कहाः सीधी और सरल सी बात है, मैं इसलिए बजाता हूं कि मुझे कुछ मिल जाए। और मेरा गुरु इसलिए बजाते है कि उन्हें कुछ मिल गया है। इसलिए बजाता है और मुझे कुछ मिल जाए इसलिए बजाता हूं। मेरा बजाना एक भिखमंगे का बजाना है, मेरे गुरु का बजाना एक सम्राट का बजाना है। आनंद मिल गया है और आनंद से उसका संगीत निकल रहा है। और मेरा संगीत तो एक साधन है कि मुझे रुपये मिल जाएं तो शायद आनंद मिले।
दो तरह का जीवन है, एक आनंद को खोज लेने से जो जीवन विकसित होता है वह सारा जीवन प्रार्थना बन जाता है। वह सारा जीवन जन्मजात ही निष्काम बन जाता है। वह सारा जीवन सहज ही किसी तरह की फल की कामना से मुक्त हो जाता है और एक जीवन होता है जो दु:ख का जीवन जिसमें कुछ भी पाने की इच्छा होती है, आकांक्षा होती है।
और स्मरण रखिए, दुख से जो कृत्य निकलता है वह आनंद कभी न ला सकेगा। क्योंकि जहां से जो चीज निकलती है वही मिल जाती है। मिट्टी से जो चीज उत्त्पन्न होती वह मिट्टी में गिर जाती है। जिसकी शुरुआत है उसका अंत भी होता है। तो अगर हमारा मन दुखी होता है और हम कोई काम करता हैं कि इससे सुख मिल जाए, तो गलती में हैं, दुखी चित्त से जो कृत्य निकलेगा उसका अंत दुख ही होगा सुख नहीं हो सकता। दुख के बीज से दुख के फल लगते हैं। जो कृत्य आनंद की भूमि से निकलता है, वह आनंद लाता है। क्योंकि आनंद से निकला हुआ बीच आनंद के फलों को पैदा करता है।
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